किसान से मजदूर बनता होरी आज भी जिंदा है
कानून और न्याय उसके पास है जिसके पास पैसा है। कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे , कोई जमींदार किसी काश्तकार के साथ सख्ती न करे, मगर होता क्या है ? रोज़ ही देखते हो । जमींदार मूसक बंधवाकर पिटवाता है और उसका महाजन लात और जूते से बात करता है । ....कचहरी और अदालत उसी के साथ है जिसके पास पैसा है ।
यह कथन प्रेमचंद ‘गोदान’ उपन्यास के पात्र झिंगुरी सिंह के माध्यम से कहते हैं । प्रेमचंद का यह कथन दर्शाता है की वे अपने समय व्यवस्था से कितने क्रुद्ध को चुके थे। प्रेमचंद का काल ब्रिटिश इंडिया का काल था, घोर अन्याय का काल, शोषण का काल । पर न्याय, कानून और पैसे का खेल आजाद भारत में भी बदस्तूर कायम है।
प्रेमचंद को हिंदी साहित्य का पोस्टर बॉय के रूप में जाना जाता है, परन्तु ऐसी स्थिति को देख एक ही सवाल जेहन में अनायास आता है की क्या प्रेमचंद के साहित्य साधना का प्रभाव समाज पर कुछ भी नहीं हुआ ? क्या प्रेमचंद केवल साहित्य तक सीमित कर दिए गये ?
1930 में प्रेमचंद द्वारा लिखी कहानी ‘पूस की रात’ में किसान हल्कू जाड़े की रात काटने के लिए पैसे बचाता है ताकि कम्बल ले पाए, लेकिन मेहनत से बचा कर रखे गये वह पैसा सूद में दे देता है, ताकि सूद मांगने आये महाजन की झिड़की ना सुननीं पड़े। प्रेमचंद सूदखोरी को इस कहानी में शोषण करने का जरिया मानते हैं। सूद को समाजिक बुराई मानते हैं । परन्तु कहानी लिखे जाने के इतने वर्ष बाद भी सूदखोरी कायम है। मतलब कहानी लिखने का मकसद पूरा नहीं हो रहा है । तो बात वही है, बुराई समाप्त नहीं हो रही है बल्कि उसका स्वरूप बदलता जा रहा है , पहले से और भी आकर्षक होता जा रहा है।
हम सब को बताया जाता है की भारत किसानों का देश है, किसान ही इसके मूल नागरिक हैं और गाँव ही इसकी मूल आत्मा । पन्त ने भी कहा है ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ । किसान और ग्राम जीवन को केंद्र कर प्रेमचंद की कालजयी उपन्यास है गोदान । जिसे ग्राम जीवन का ब्लू प्रिंट माना जाता है। ‘गोदान’ किसान होरी महतो से मजदूर होरी महतो बनने तक का दास्तान है । होरी महतो जमींदारी , सूदखोरी, जातिवाद , गरीबी से लड़ते हुए किसान से मजदूर बनने पर विवश हो जाता है । यहाँ होरी महतो एक किसान मात्र नहीं है वह भारत के हर किसान का प्रतिनिधित्व करता है । शर्म की बात ये है की गोदान का यह होरी महतो आज भी जीवित है क्यों की किसान से मजदूर बनने तक का सफ़र आजादी के इतने साल बाद भी जारी है। मजदूर बनना किसानों के लिए हमेशा से शर्म की बात है लेकिन क्या करें वे विवश हैं गाँव छोड़ दिल्ली-पंजाब जाने को। न भारत के मूल नागरिक खुश है न उसकी आत्मा। पन्त के शब्दों में क्रन्दन कम्पित अधर मौन स्मित , राहू ग्रसित शरदेन्दु हासिनी , भारत माता ग्रामवासिनी ।
हिंदी साहित्य को दिया गया प्रेमचंद का अमूल्य योगदान में से एक है उनका निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ । इस रचना में प्रेमचंद लिखते हैं ‘इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज किया जाता है , तो इसलिए की महाजनों-पूंजीपतियों की ज्यादा से ज्यादा नफा हो । इस दृष्टि से मानों आज महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो हिस्सों में बंट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है की अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और एक दिन चुपचाप दुनिया से बिदा हो जाये’।
कितना सरल और विकसित विचार प्रेमचंद रखते हैं। इस पतिततम पूंजीवादी-महाजनी व्यवस्था की छिपे क्रूर स्वरूप को सब के सामने रख देते हैं । लेकिन ये यह महाजनी सभ्यता ढहने के बजाय सुरसा की भांति बढ़ती जा रही है । तभी तो आज पूरा देश ही ‘ठाकुर का कुआँ’ हो चूका है और पूरी जनता ‘गंगी’ । कुएं में साफ़ पानी तो है मगर उसपे हक केवल कुछ लोग का है, गंगी को तो जानवर मरे हुए कुएं से ही पानी पीना है । उसी तरह देश में धन-सम्पति, जमीन-सम्पदा तो है मगर उसपे कुछ लोग का ही हक है , बाकि जनता तो गंगी की तरह गंदे में जीने को मजबूर है ।
सवाल एक ही है की, हर कहानी का उदेश्य होता है, उसका कुछ सन्देश होता है, तो कथा सम्राट प्रेमचंद के कहानियों का क्या उदेश्य है ? क्या सन्देश है ? अगर उनका उदेश्य जमींदारी, सूदखोरी, गरीबी, स्त्री विरोधी सोच, अंधविश्वास , जातिवाद , धर्मान्धता को खत्म करना है तो, निश्चित ही जब तक ये समाप्त न हो जाये प्रेमचंद जिन्दा रहेंगे , उनके पात्र जिन्दा रहेंगे , उनकी कहानियां जिंदा रहेंगी। प्रेमचंद के होने का मतलब है, समाज में मौजूद समस्या का होना। क्यों की समस्या से बेचैन हो कर ही कोई कलम उठता है, और प्रेमचंद की आत्मा तब तक बेचैन रहेगी जब तक समाज इन समस्या से जूझते रहेगा, वे अपने उपर हुए शोधों से खुश नहीं हो सकते, वे तो समाज में मौजूद अपने पात्रों के खुशहाली से खुश होंगे । तभी तो हम सब के लिए प्रेमचंद ‘पूस की रात’ की मुन्नी की तरह हैं जो सुबह हल्कू को नींद से जगाती है ये बताने के लिए की उसका सारा खेत नीलगाय बर्बाद कर चूका हैं । प्रेमचंद भी हमें हर कहानी में जगा कर कहते हैं की तुम्हारा सारा देश-समाज ये महाजन – पूंजीपति – नेता – ढोंगी जैसे नीलगाय चर रहे हैं , बर्बाद कर रहे हैं । नींद से जागो , कब तक सोये रहोगे ।
दैनिक भास्कर (बिहार संस्करण ) के साहित्य पेज में 1/08/2016 को प्रकाशित
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