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धधके करेजवा में आगि रे बिदेसिया

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           प्रेमचंद   अपने कहानी बलिदान में लिखते हैं कि ‘मनुष्य की आर्थिक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उनके नाम पर पड़ता है’. यह बात हमें बेहतर ढंग से समझ आती है जब हम बिदेसिया शैली के नाटकों को देखते हैं. बिदेसी, घिचोर, गड़बड़ी , उपद्दर , उदवास , चपाटराम जैसे नाम बस महज नाम नही है ये अपने साथ अपने पात्रों के सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी बताते हैं . प्रेमचंद का यह कथन बिदेसिया के सृजनकर्ता भिखारी ठाकुर पर भी प्रतिबिम्बित होता है. भिखारी शब्द एक साथ उनके आर्थिक , सामाजिक पिछड़ेपन को बताता है . भिखारी ठाकुर अपने उम्र के पहले तीस वर्ष नाई का काम करते रहे और बाकि के उम्र मंच पर जीवन का नचनिया बन कर. वे आम आदमी के कवि भी थे और उनके पीड़ा के गायक भी.  भिखारी ठाकुर की आवाज पिछले शताब्दी के तीसरी दशक से गुंजनी शुरू हुई . यह समय था ब्रिटिश इंडिया का . इसी समय बिदेसिया , गड़बड़-घिचोर , बेटी बेचवा , भाई विरोध सरीखे नाटक सृजन हो रहे थे. ब्रिटिश काल होने के बावजूद इन नाटकों में ब्रिटिश विरोध के बजाए सामाजिक और पारिवारिक समस्या थी, विदेशी वस्तु के बहिष्कार के जगह बेमल शादी की पीड़ा थी. असहयोग की जगह पलायन प