दैनिक भास्कर में प्रकाशित कविताएं
आज की लड़कियां
मर्यादा के तह में
छिपे गुलामी के चोगे को
टांग दीं हैं खूंटी पे ।
सभ्य स्त्री के
प्रतिमान बताने वाले आईने को
छोड़ आई हैं समुद्र की
अनंत गहराइयों में ।
पुरुषों को रिझाने वाले
श्रृंगार के सामान
को फेंक आई हैं
असंख्य आकाशगंगा के बीच ।
ये लड़कियां लांघ गयी हैं
वर्षों पुरानी उस ऊंची दीवार को
जिस के पीछे सदियों से
ये सजती आ रही हैं
किसी वस्तु की तरह ।
तोड़ डाली हैं उन
अनगिनत अदृश्य बंधनों को
बंध कर जिससे
घसटाती आ रही हैं वर्षों से
पुरुषों के पीछे ।
गिरती हैं , हारती हैं , लड़खड़ती हैं
पर समय के साथ चलती हैं
आज की लड़कियां ।
मर्यादा के तह में
छिपे गुलामी के चोगे को
टांग दीं हैं खूंटी पे ।
सभ्य स्त्री के
प्रतिमान बताने वाले आईने को
छोड़ आई हैं समुद्र की
अनंत गहराइयों में ।
पुरुषों को रिझाने वाले
श्रृंगार के सामान
को फेंक आई हैं
असंख्य आकाशगंगा के बीच ।
ये लड़कियां लांघ गयी हैं
वर्षों पुरानी उस ऊंची दीवार को
जिस के पीछे सदियों से
ये सजती आ रही हैं
किसी वस्तु की तरह ।
तोड़ डाली हैं उन
अनगिनत अदृश्य बंधनों को
बंध कर जिससे
घसटाती आ रही हैं वर्षों से
पुरुषों के पीछे ।
गिरती हैं , हारती हैं , लड़खड़ती हैं
पर समय के साथ चलती हैं
आज की लड़कियां ।
इश्क़ में पाग़ल लड़कियां
इश्क़ में पाग़ल लड़कियां
पृथ्वी की तरह
नहीं करती परिक्रमा
सूर्य की ।
ये लड़कियां तो माप आती हैं
ब्रह्मांण्ड की अनंत सीमा को
एक ही छलांग में ।
पृथ्वी की तरह
नहीं करती परिक्रमा
सूर्य की ।
ये लड़कियां तो माप आती हैं
ब्रह्मांण्ड की अनंत सीमा को
एक ही छलांग में ।
ये नदियों की तरह,
चट्टानों से टकराती
बहती हैं पुरे वेग से धरती पे
यहाँ से वहाँ ।
चट्टानों से टकराती
बहती हैं पुरे वेग से धरती पे
यहाँ से वहाँ ।
नही डरती किसी झूठी बदनामी से
नही सोचती कि
पड़ोस के लोग क्या सोचते हैं ?
ये तो इश्क करती हैं
किसी शास्वत क्रिया की तरह
जैसे सूर्य उगता है , हवा चलती है
बारिश होती है , पत्ते झड़ते हैं
इश्क़ में पागल लड़कियां
बने बनाये ढांचे को तोड़
खुद अपनी साँचे तैयार करती हैं
क्योंकि इश्क़ में पागल लड़कियां ही
ज़्यादा स्वतंत्र होती हैं ।
खुद अपनी साँचे तैयार करती हैं
क्योंकि इश्क़ में पागल लड़कियां ही
ज़्यादा स्वतंत्र होती हैं ।
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- दैनिक भास्कर (बिहार संस्करण) में 14 दिसम्बर 2015 को प्रकाशित -