एक था गीतकार
एक था गीतकार
- सुधाकर रवि
फिल्म ‘गाइड’ के गाने बनाये जा रहे थे । फिल्म के गीतकार थे हसरत जयपुरी
और संगीतकार थे सचिन देव बर्मन । गाने बनाने के क्रम में सचिन देव बर्मन को गीत के
कुछ शब्द ठीक नही लगे सो उन्होने हसरत जयपुरी को शब्द बदलने को कहा । हसरत साहब को
यह नागवार जुगरा वे शब्द ना बदलने पर अड़ गए । बहस बढ़ता गया , अन्त में हसरत
जयपुरी ने गीतकार होने का स्वाभिमान का परिचय देते हुए देव आनन्द की महत्वकांक्षी
फिल्म ‘गाइड’ छोड़ दी ।
ऐसा ही एक
वाकया हुआ साहिर लुधयानवी और लता मंगेशकर के बीच । एक छोटे से झगड़े से शुरु होकर
झगड़ा इस कदर बढ़ गया कि साहिर ने यह घोषणा कर दी की मैं जो भी फिल्म करुंगा उसका
मेहनताना लता से एक रुपया ज्यादा लूंगा ।
लता मंगेशकर मशहूर गायिका ,
सारा जमाना
उनके आवाज का कायल सो जाहिर होगा कि उनका मेहनताना एक गीतकार से ज्यादा ही होगा ।
बावजूद इसके यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म के हर गाने साहिर से ही लिखवाये ।
यह हिंदी
सिनेमा का वह दौर था जब गीतकार का अपना रुतबा अपनी सख्सीयत अपना पहचान हुआ करता था
। फिल्मों के सफलता में इनका भी अहम योगदान होता था । हर प्रोड्यूसर अपनी फिल्म के गाने बेहतरीन
गीतकार से ही लिखवाना चाहता था । यह दौर था शैलेंद्र , साहिर , शकील, प्रदीप, हसरत जयपुरी , नीरज , इद्रीवर का ।
जिनकी नज्म ,गीत साहित्य से भिन्न नही थी । गीतकार शैलेन्द्र ने
भी अपने को कभी साहित्य से अलग नही माना । साहित्य के जन काफी उत्सुकता से सिनेमा
देखा करते थे और सिनेमा के बंधु उतनी ही तनमयता से साहित्य को पढ़ा करते थे ।
साहित्यकारों और फिल्मी गीतकारों के बीच संवाद से उनके एक-दूसरे के बीच घनिष्ट
संबंध का पता चलता है । गीतकार शैलेंद्र और फणीश्वर नाथ रेणु के बीच दोस्ताना
संबंध का ही उपज थी हिन्दी सिनेमा का बेहतरीन फिल्म ‘तीसरी कसम’ । गोपाल दास
नीरज जितने कवि के रुप में जाने जाते हैं उतने ही एक गीतकार के रुप में भी जाने
जाते हैं । कही – कही तो ऐसा भी
क्षण आता है जब कोई बात कहने के लिए साहित्य के पंक्तियों के बजाये फिल्मों के गीत
ज्यादा कारगर साबित हुए हैं , उनमें संवेदना के तत्व अधिक विद्यमान रहे हैं। फिल्म पूरब
और पश्चिम में इंदीवर के लिखे गीत ‘प्रीत जहाँ की रीत सदा’ में भारत के अस्मिता का बयान जग-जाहिर है , ‘सजन रे झूठ मत
बोलो खुदा के पास जाना है’
गीत में
शैलेंद्र की दार्शनिकता आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले थी । साहिर के गीत ‘वह सुबह कभी
तो आएगी’ जितने उत्साह
और विश्वास के साथ बौद्धिक जन में चर्चित थी आम आवाम में गाए जाते थे समय के साथ
समय के साथ उसकी प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। प्रदीप के गीत ‘ऐ मेरे वतन के
लोगों’ का प्रभाव इस कदर था कि आम जन के साथ साथ
प्रधानमंत्री नेहरु की भी आँखे नम कर दी थी ।
समय के साथ
बढ़ते , हिन्दी सिनेमा
आज बालिबुड में परिणित हो गया है , फिल्म बनाने के नए तकनीक , नए तरीके
आ गए हैं । इस नयी दुनिया में फिल्मों का पहले से व्यापक बाजार हो गया है।
फिल्मों का प्रदर्शन अब और भी व्यापक स्तर पर हो रहा है । पर इस नयी दुनिया में
अभिनेता , अभिनेत्री , निर्देशक , निर्माता , संगीतकार , गायक , गायिका के
सामने गीतकार का कद बौना-सा हो गया है । गीत के नाम पे कुछ भी उलूल जुलूल हिन्दी , अंग्रेजी के
शब्दों को जोड़ कोई भी गीतकार बन बैठा है । जीवन के हर पहलूओ , संवेदनाओं को
कहने में हिन्दी फिल्मों के गीत जितनी धनी थी आज उतनी ही निर्धन नजर आ रही है ।
गीतकार पर गाने को हिट बनाने के निर्देशक का
दबाव बना रहता है । इसके बावजूद
अगर कोई गीतकार अच्छा गीत लिखे और गाना हिट भी हो जाए तो संगीतकार , गायक , गायिका ही
क्रेडिट खा जाते हैँ । गायक – गायिका स्टेज शो कर के अच्छा पैसा , पहचान अर्जित
कर रहे हैं पर गीतकार को सार्वजनिक मंचों से पहचान नही मिल पा रही है। एक समय होगा
जब ‘आवारा हूँ’ पूरे सोवियत
संघ , तुर्की,हंगरी,चीन में सुना
जाता होगा पर आज हिट के मुहर लगे गाने भी महीने-दो महीने में ही जुबां से उतर जाते
हैं ।
साहिर की एक
गीत के शब्द हैं- ‘कल और आएँगे
नगमों की मिठ्ठी कलियाँ चुनने वाले , मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले’ । पर शायद आज
नगमों की मिठ्टी कलियाँ चुनने वाले पैदा ही नही होते या उन्हे फिल्मी दुनियाँ के
पैशाचिक रुप ने निगल लिया है । इसका एक
उदाहरण है कि वर्ष 2005 के फिल्म
फेयर के हर नामिनेशन अपने नाम करने वाले
और 8 बार फिल्म
फेयर के सर्वश्रेष्ठ गीतकार के विजेता जावेद अख्तर के गीत साल-दो साल से फिल्मी
पर्दे से गायब है ।
उस दौर से आज
तक के सिनेमा के पहलूओं पर गौर करने से पता चलता है कि यह परिवर्तन कला पर व्यवसाय
के हावी होने के कारण हुआ है । कला से सजी हुई फिल्मों का व्यवसाय करते –करते हम उस
जगह पर आ गए हैं जहाँ फिल्मों से कला ही गायब होती जा रही है । आज जरुरत है कला की
मर्म समझने वाले की , जो कला और
व्यवसाय का अर्थपूर्ण सामंजस्य स्थापित कर सके । जो कला को जीवन के गुणवता को
मजबूत करने का जरिया माने । एक बार फिर जरुरत है राज कपूर की जो एक कवि सम्मेलन के
अनाम कवि की कला को पहचाने और वह कवि अपने शब्द शक्ति के बल पर गीतकार शैलेंद्र बन
पाए । अन्यथा गीतकार के सामने सही परिस्थिति रही तो आने वाले पीढ़ी के यही कहेंगे
एक था गीतकार ।
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