Posts

Showing posts from December, 2015

कैफ़ी आज़मी की नज्में

एक बोसा  जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को सौ चराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजन्ता की मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं फूल खिलने लगते हैं उजड़े उजड़े गुलशन में प्यासी प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं. नज़राना तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छुपा रक्खा है देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है मुस्कुरा देती हो रसमन भी अगर महफ़िल में इक धनक टूट के सी...